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________________ = सम्यक् विचार= एकांत विप्रिय न दिहूं मध्यस्थं ममल शुद्ध सन्भाव | सुद्ध सहावं उत्तं, ममल दिट्टि च कम्म षिपनं च ॥ २२ ज्ञानी जन एकान्त विपर्यय, भाव न मन में लाते । स्याद्वाद - नय पर चढ़कर वे, मध्य-भाव अपनाते भावों में शुचिता आना ही, कर्मों का जाना है । कर्मों का जाना ही भाई ! शिव-पथ को पाना है ॥ ज्ञानी जन एकान्त, विपर्यय या एकांगो भाव को कभी भी अपने मन में स्थान नहीं देते, प्रत्युत वे मध्यस्थ भाव हो सदैव रखते हैं । मध्यस्थ भाव अपनाने से भावों में विशुद्धता आती है; भाव विशुद्ध होने से कमों की बेड़ियां टूटने से उस स्थल की प्राप्ति हो जाती है जिसके लिये मनुष्य कोटि कोटि वर्षों पर्यन्त तप करता है फिर भी कदाचित् उस स्थल- मोक्षस्थान को नहीं पाता । सत्वं क्लिष्ट जीवा, अन्मोयं सहकार दुग्गए गमनं । जे विरोह सभावं, संसारे सरनि दुःषवीयम्मि ॥ २३॥ जो नर संसारी जीवों को, पीड़ा पहुँचाते हैं । या पर से दुख पहुँचा उनको, जो अति सुख पाते हैं || ऐसे दुष्टों का होता बस, नर्क - स्थल में डेरा | असम-भाव जिसके, उसको बस, मिलता नर्क बसेरा || जो मनुष्य संसारी - षटकाय के जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं ऐसे उन दुष्टों का बसेरा केवल नर्क में ही होता है, क्योंकि सिद्धांत इस बात को उच्च स्वरों से कहता है कि जिसके भावों में विषमता (हिंसक क्ररता) रहती है उसको केवल नर्क में ही डेरा मिलेगा। अथवा वे भव भव के लिए दुखों का ही बीज बोते रहेंगे। तात्पर्य यह कि विषम भावों से विषम योनियों को प्राप्त होगा यह संसारमान्य सिद्धान्त है, केवल एक जैनधर्म का ही नहीं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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