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________________ २८ ] ==मभ्यक विचार शंकाद्य दोपं मद मान मुक्तं, मृदं त्रियं मिथ्या माया न दृष्टं । अनाय पट्कर्म मल पंचवीमं, त्यक्तम्य ज्ञानी मल कर्ममुक्तं ॥१४॥ शंकादि वमु दोप, मानादि मद को, जिसके हृदय में कुछ थल नहीं है। त्रय मृढ़ता, पट आनायतन की, जिस पर न पड़ती छाया कहीं है । उपरोक्त पच्चीस मल-रियों पर, जिसने विजय प्राप्त की भव्य भारी। वह कर्म के पाश में छूटता है, बनता वही मुक्ति-रमणी-विहारी ।। जिसके अपने आवन में सम्यग्टशन के शंकादि = दाप, जानि कुल प्रादि के - मद. नान मृढ़ता नथा अज्ञान पूर्वक किए हुए : कम, प म य पच्चीस दोप नहीं है, वह ज्ञानी पुरुप शाही कमां की पाश से छूट कर मान का नया माग पकड़ लेता है और एक दिन ममम्न कमां से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेना है, आत्मा का परमात्मा बना लेना है । शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्मतत्त्वं, ममस्त मंकल्प विकल्प मुक्तं । रत्नत्रयालंकृत मत्स्वरूपं, तत्वार्थमाथं बहुभक्तियुक्तं ॥१५॥ शुद्धात्मा-तत्व का भव्य जीवो, है शुद्ध, मित, सौम्य, निर्मल प्रकाश । संकल्प आदिक का क्षोभ उसमें, करता नहीं रंच भी है निवास ॥ शुद्धात्मा का शुद्ध स्वरूप, है रत्नत्रय से सजित सुखारी । तत्वार्थ का सार भी बस यही है, भव्यो वनो आत्म के तुम पुजारी ॥ जो तत्त्वज्ञानी पुरुप नित्यप्रति शुद्धात्मा के गुणों का चिन्तवन करते रहते है तथा उसी तरह के अपने धर्म-आत्म धर्म में लीन बने रहते हैं, संसार के दुखों का उन्हें आभास भी नहीं होता । से विशिष्ट महात्मा पुरुप जीवादि तत्त्वों के ज्ञान में पारंगत होकर अपनी आत्मा में लोन रहने लग जाते हैं, और समय पाकर समस्त संकल्प विकल्पों से छूटकर कर्मों की वेड़ियों को विध्वंम करके उस अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं जिसे मुक्तावस्था या परमपद कहते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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