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________________ सम्यक् विचार= = [ ४१ जिनयति मिथ्या भावं, अमृत असत्य पर्जाव गलियं च । गलियं कुन्यान सुभावं, विलय कम्मान तिविह जोएन ॥४॥ आत्म-मनन से मिथ्यादर्शन; इंधन-सा जल जाता । अनृत, अचेतन, असत् पदों में, मोह न फिर रह पाता || 'सोऽहं' की ध्वनि क्षय कर देती, कुज्ञानों की टोली । आत्म-चिन्तवन रचदेता है, अष्ट मलों की होली ।। श्रात्ममनन से मिथ्यादर्शन, इंधन के समान जलकर भस्म हो जाता है, जिसका फल यह होता है कि अनृत, अचेतन और असत् पदार्थों में फिर मोह रहता ही नहीं। कुज्ञानों का समूह आत्म-मनन की ध्वनि को सुनकर पलायमान हो जाता है और अष्ट कमों की तो यह आत्म-मनन मानो होली ही रचकर भम्मीभूत कर देता है। नन्द आनन्दं रूवं, चेयन आनन्द पर्जाव गलियं च । न्यानेन न्यान अन्मोयं, अन्मोयं न्यान कम्म पिपनं च ॥५॥ परम ब्रह्म में जब रत होता, मन-मधुकर-मतवाला । सत् चित्, आनन्द से भर उठता, तब अंतर का प्याला ॥ ज्ञानी चेतन, ज्ञान-कुण्ड में, खाता फिर फिर गोते ।। मलिन भाव और सबल कम तब, पल पल में क्षय होते ॥ जिस समय यह मन परम ब्रह्म स्वरूप शुद्धात्मा के चितवन में लीन होता है, उस समय सत् चित और आनन्द से अंतरंग हृदय भर जाता है। होता यह है कि चेतन के ज्ञान कुण्ड में बार बार गोता लगाने से, हमारी मलिन आत्मा के समस्त मलिन भाव और कर्म क्रमशः क्षीण होने लगते हैं, जो कर्मावरण क्षीण होने से हमें हमारा वास्तविक स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है। इसी का दूसरा नाम सम्यक्त्व का उदय है अथवा आत्म-साक्षात्कार हो जाना है। - - - -- - ----
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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