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सम्यक आचार
फलंपून भुक्तं च, ममूर्छन त्रस विभ्रमं । जीवन उत्पादते दिस्टं, हिंमानंदी मांस दपनं ॥ ११२ ॥ रे! कली के भीतर न, सम्मूर्छन विचरते हों कहीं। इससे बिना काटे कभी भी, पूर्ण फल खाओ नहीं । अधिकांश में यह सत्य. फल सम्मळुनों के कोष हैं । जो फल खाते उन्हें लगते अमिष के दोष हैं ।
पूर्ण फल ( ममृ. न ) को. बिना काट या विना चीर, कभी भी नहीं खाना चाहिय, क्योंकि उसमें मम्मूछन पाये जाने .. मंभावना है। अधिकांश में यह देखा गया है कि फलों में सम्मृङ्घन जीव पाय जान है. अन: जो विः भग्ब पूरे फन को ग्वा जाना है, वह हिमानी जाब कहा जाता है और उसे मांस भक्षण करने का दोष ना है ।
मद्यपान
मद्यं ममत्व भावन. गज्यं आरूढ चिंतनं । भाषा नद्धि न जावंत, मद्यं तम्य उच्यतं ॥ ११३ ॥ जो ना पाता, स्वप्न के संमार में वह घूमना । संसार की समृद्धि को, वह मद्यपी नित चूमता ॥ वह अनर्गल बक रहा, रहता न' उसको ध्यान है । बनता भी वह रंक, बनता वह कभी धनवान है ।।
मनुष्य मदा पीक. यान के संमार में विचरण करने लगता है। कभी उसके नशे में वह राज्यामढ़ हो जाता है और कभीय समृद्धियों का धनी बन जाता है। मद्य के नशे में उसे अपनी भाषा का भी ध्यान नहीं रहता कि २ या बक रहा है और जो कुछ वह पालाप-प्रलाप कर रहा है, वह कहां तक उचित है।