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==सम्यक् विचार
अप्पा पर पिच्छंतो, पर पर्जाव सल्य मुक्कं च । न्यान महावं सुद्धं, चरनम्य अन्मोय संजुत्तं ॥११॥
आत्म द्रव्य का पर स्वभाव है, पर द्रव्यों का पर है । इस मन में बहता जब ऐसा, ज्ञानमयी निर्झर है ।। पर परिणतिय, शल्ये तब सब, सहसा ढह जाती है । निज स्वरूप की ही ता फिर फिर, झांकी दिखलाती हैं।
आत्मद्रव्य का न्यभाव चैतन्य लक्षण कर विभूपित है, जब क अनात्म-द्रव्यों का स्वभाव केवल जड़-चेतनाहीन है अथान आत्मा से सर्वथा भिन्न है। जिस समय अंतरंग में यह भदज्ञान का निर्मर बहना है, तो संसार को मारी पर परिणतिय और शल्ये वालू की दीवार के समान अपने आप ढहने लगती है और फिर आत्मा के दर्पण में आत्मा को केवल अपनी और कंवल अपनी ही विशुद्ध छबि दिग्याई देनी है। यदि कदाचित किमी काय कारण से उसमें पर-परिणति का रंचमात्र भी संचार दृष्टिगोचर होता है तो उसे वह तत्काल प्रथक कर देना है।
अवम्भं न चवन्तं, विकहा विनस्य विषय मुक्कं च । न्यान सुहाव सु समय, ममय महकार ममल अन्मोयं ॥१५॥
परमब्रम में जब चंचल मन, निश्चल हो रम जाता । तब न वहां पर अन्य; किन्तु. निज आत्मस्वरूप दिखाता । चारों विकथा, व्यसन, विषय, उस क्षण छुप-से जाते हैं । परमब्रम में रत मन होता, मल सब धुल जाते हैं ।
जब परम ब्रह्म परमात्मा के बम्प शुद्धामा में यह मन निश्चल होकर रम जाता है तब फिर उसकी दृष्टि में केवल एक और एक ही पदार्थ दृष्टिगोचर होता है और वह पदार्थ होता है उसका स्वयं का स्वरूप-आत्मम्वरूप । संसार की सारी व्यथ चर्चाय और विपय कपाय उस क्षण जैसे कहीं छिप से जाते हैं और आत्मा के साथ जितने कर्मबंध हैं लगता यह है कि जैसे वे उस समय धीरे धीरे धुल रहे हैं, खिर रहे हैं अर्थात् निर्जरा हो रहे हैं।