Book Title: Samyak Achar Samyak Vichar
Author(s): Gulabchandra Maharaj, Amrutlal
Publisher: Bhagwandas Jain

View full book text
Previous | Next

Page 346
________________ ५२ ]= सम्यक विचार: जिन वयन सुद्ध सुद्धं, अन्मोयं ममल सुद्ध सहकारं । ममले ममल सरूवं, जं रयनं रयन सरूव समिलियं ॥ २६ ॥ श्री जिनवाणी निश्चयनय का, प्रिय सन्देश सुनाती । त्रिभुवनतल में उससी पावन, वस्तु न और लखाती ॥ ज्ञान-सिन्धु आतम का भव्यो ! रूप परम पावन है । आत्म-मनन से ही मिलता बस, रत्नत्रय सा धन है || करुणामयी जिनवाणी निश्चय का पवित्र सन्देश सुनाते हुए हमको जगा जगाकर कहती है कि हे भव्यो ! ज्ञान-सिन्धु श्रात्मा का रूप सबसे विशुद्धतम रूप है, तुम इसी का मनन करो, क्योंकि मोक्ष के द्वार रत्नत्रय की प्राप्ति केवल आत्म-मनन से ही होती है । खेष्टं च गुन उववन्नं खेष्टं सहकार कम्म संषिपनं । " खेष्टं च इष्ट कमलं, कमलसिरि कमल भाव उववन्नं ॥२७॥ जगता है शुद्धोपयोग गुण, आत्म-मनन से भाई । जिसके बल से गल जाते सब, कर्म महा दुखदाई ॥ कर्म काट, अरहन्त महापद, आत्म-कमल पाता है और यही निज-रूप रमण फिर, शिवपुर दिखलाता है | भन्यो ! आत्ममनन से अन्तर में शुद्धोपयोग की जाग्रति होती है— शुद्धोपयोग का संचार होता है जिसके द्वारा आत्मा के प्रदेशों से चिपटे हुए सारे कर्म पृथक होने लग जाते हैं कि यही आत्मा रहंत पद प्राप्त कर लेती है । अरहन्त पद सन्निकट प्राप्त होने पर मुक्ति का मार्ग तो क्या वह स्वयं मुक्त स्वरूप हो जाता है और समय आने पर द्रव्यमुक्त हो जाता है - मोक्षधाम में जा बिराजत्ता है । -

Loading...

Page Navigation
1 ... 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353