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-सम्यक् विचार=
जिन वयनं सहकार, मिथ्या कुन्यान सल्य तिक्तं च । विगतं विषय कषाय, न्यानं अन्मोय कम्म गलियं च ॥२८॥
भव-सागर अति दुर्गम, दुस्तर, थाह न इसकी प्राणी ! इसको तारन में समर्थ बस, एक महा जिनवाणी ॥ जिनवाणी कुज्ञान, कषायें, शल्य, विषय क्षय करती ।
निश्चयनय का गीत सुना यह सब कर्मों को हरती ॥ यह संसार सागर महा गहन और दुस्तर है, इससे पार करने में केवल एक जिनवाणी ही समथ है। जिनवाणी-कुज्ञान, कषायें, शल्य और विषय इन सबका क्षय कर देती है और निश्चय नय का गीत सुनाकर समस्त कमों को क्षय कर देती है। ऐसी जिनवाणी की शरण लेना व उसकी आज्ञानुसार चलना ही कल्याणकारी है। तात्पर्य यह कि कर्मों का क्षय करने वाली जिनवाणी ही है।
कमलं कमल सहावं, षट्कमलं तिअर्थ ममल आनन्दं । दर्सन न्यान सरूवं, चरनं अन्मोय कम्म मंषिपनं ॥२९॥
आत्म-कमल अरहन्त रूप में, जिस क्षण मुसकाता है । उस क्षण ही, पट गुण त्रिरत्न-दल उसको विकसाता है । दर्शन-बान-सरोवर में तब, आत्म रमण करता है । और अघातिय कम नाश, वह शिव में पग धरता है।
ज्ञान सूर्य के उदय होने पर जिस समय आत्म-कमल प्रफुल्लित होता है उस समय शरीर रचना में जो छह कमल वे सब प्रफुल्लित हो जाते हैं और तीन रत्न सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का विकास हो जाता है । इस स्थिति में ज्ञानी आत्मरमण में तल्लीन हो जाता है और अघातिया कमों का विध्वंस करके वह मुक्ति नगर की ओर अग्रसर हो जाता है। केवलज्ञानी हो जाता है।