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=सम्यक विचार=
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जिन वयनं च सहावं, जिनय मिथ्यात कषाय कम्मान । अप्पा सुद्धप्पानं, परमप्पा ममल दर्सए सुद्धं ॥१६॥ जिन-मुख सरसीरुह की है यह, ऐसी प्रिय जिनवाणी । मल. मिथ्यात्व, कपायें सबको, पल में हरती ज्ञानी ॥ आत्मतत्व ही शुद्ध तत्व है, जिन प्रभु कहते भाई । आत्म-मुकुर में ही बस तुमको. देंगे प्रभु दिखलाई ॥
निश्चयनय का यह जो कुछ भी कथन है यह परम्परा से हो चला आया है, और इसके मूल में जिनवाणी का ही श्रोत झर झर कर रहा है। जिनवाणी का कथन है कि हे भाइयो ! संसार में केवल शुद्धात्मा ही एक विशुद्ध नत्त्व है और इमी नत्त्व के दर्पण में तुम्हें परमेश्वर की माधुरी छवि दृष्टिगोचर होगी।
जिन दिष्टि इष्टि नमुद्धं, इम्टं मंजोय विगत अनिष्टं । इस्टं च लस्ट कलं, ममल महावेन कम्म मंपिपरं ॥१७॥
जिनवाणी की श्रद्धा हिय में. शुचि पारनता लाती । विरह अनिष्टों ने, इष्टों ने, यह संयोग कगनी ॥ त्रिभुवन में सबसे मृदुनम वस. आत्म-मनन की प्याली ।
आत्म-मनन से ही टूटेगी, कर्म-कमट की जाली ॥ जिनवाणी का श्रद्धा हृदय में पूर्ण विशुद्धता का सृजन करती जिमसे अनिष्ट पदाथों से तो हमारा छुटकारा हो जाता है और इष्ट पदाथ हमें बिना प्रयास किये ही प्राप्त हो जाने हैं। भगवान का यह वचन है कि त्रिभुवन में सबसे इष्ट वस्तु यदि कोई है तो वह है शुद्धात्मा का अचना और शुद्धात्मा की अर्चना में ही यह शक्ति विद्यमान है कि वह कम के लोह-बंधनों को जर्जर करके तोड़ सके।