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= सम्यक विचार
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पदस्थ पिण्डस्थ रूपस्थ चित्तं, रूपा अतीतं जे ध्यान युक्तं । आर्त रौद्रं मद मान त्यक्त, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥२८॥
पादस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, निमूत, इन ध्यान-कुंजों के जो बिहारी । मद-मान-से शत्रुओं के गढ़ों पर, जिनने विजय प्राप्त को भव्य भारी ॥ जिनके न तो रौद्र ही पास जाता, जिनको न ध्यानात की गंध आती।
ऐसे सुजन-पुंगवों के हृदय ही, यह आत्मगुण-मालिका है सजाती ।। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये धर्मध्यान के चार भेद ही जिनके दैनिक जीवन के अंग हो जाते हैं, आर्त और रौद्र ध्यान जिनके पास फटकने भी नहीं पाता तथा अष्ट मदों को जलाकर जो भस्म कर चुके हैं, हे श्रेणिक ! ऐसे ही आत्मबल में श्रेष्ठ पुरुष इस माला को अपने हृदय पर पहिरने के अधिकारी हुआ करते हैं।
आज्ञा सुवेदं उपशम धरत्वं, क्षायिक शुद्धं जिन उक्त साधु । मिथ्या त्रिभेदं मल राग खंडं, ते माल दृष्ट हृदय कंठ रुलितं ॥२९॥
जो श्रेष्ठतम नर बेदक व उपशम, सम्यक्त्व के हैं शुचि शुद्ध धारी । मिथ्यात्व से हीन, है प्राप्त जिनको, सम्यक्त्व क्षायिक-सा रत्न भारी ॥ मद-राग से जो रहित सर्वथा है, जो जानते जिन-कथित तत्व पावन । वे ही हृदस्थल पर देखते हैं, नित राजती, मालिका यह सुहावन ॥
आज्ञा, वेदक, उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व के जो पूर्णरूपेण धारी हो जाते हैं, तीन प्रकार के मिथ्यात्वों को जो खंड खंड करके एक भोर डाल देते हैं तथा कमों के पहाड़ को रजकणों में मिला देने का पुरुषार्थ जिनमें जाग्रत हो जाता है, हे श्रेणिक सुनो ! यह अध्यात्ममाला उनके ही कंठ में निवास करती है।
अंधमद्धा से नहीं, विवेकपूर्वक जिन-वचनों पर विश्वास करने को माझा सम्यक्त्व जानना ।