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सम्यक विचार---
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पड़माय ग्यारा तत्वान पेपं. वृत्तानि शीलं तप दान चित्तं । मम्यक्त्व शुद्धं न्यानं चरित्रं, सुदर्शनं शुद्ध मलं विमुक्तं ॥१२॥
एकादश स्थान में आचरण कर, कारि पर जय करो प्राप्त भारी । पंचाणुव्रत पाल भव भव मुधारो, एकाग्र हो तप तपो तापहारी ।। दो दान सत्पात्र-दल को चतुर्भीति, निज आत्म की ज्योति को जगमगाओ। पावन करो शील-मुर-वारि मे गेह, सम्यक्त्व-निधि प्राप्त कर मोक्ष पाआ ॥
भव्यो ! तुम्हाग क्रमश: प्रात्मक विकाम हा, कंवल इसके लिये ही ग्यारह प्रतिमाओं ( ग्यारह प्रतिज्ञाओं ) की मृण हुई है। अनः तुम अपनी शक्ति के अनुसार क्रमशः एक मीढ़ी से दृमरी सीढ़ी पर चढ़ते चले जाओ। पंचाण व्रतों का यथाशक्ति पालन करो और शील, तप व दान में अधिक से अधिक अपनी शक्ति को लगाकर प्रयाम यह करो कि तुम्हारा मम्यक्त्व पूरण निमलता को प्राप्त हो जावे । 'मम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होने पर ही पहली दशनप्रतिमा कही गई है' तथा उसकी क्रमबद्ध निर्मलता ही प्रतिमाओं की विशेषता है।
मूलं गुणं पालंन जीव शुद्धं, शुद्धं मयं निर्मल धारणेत्वं । ज्ञानं मयं शुद्ध धरंति चित्तं, ते शुद्ध दृष्टी शुद्धात्मतत्वं ॥१३॥
वसु मूलगुण को पालन किये से, रे ! जीव होता है शुद्ध, सुन्दर । पुण्यार्थियों को इससे उचित है, धारण करें वे यह व्रत-पुरन्दर ॥ जो ज्ञानसागर इस आचरण से, यह देव-दुर्लभ जीवन सजाते । व वीर नर ही हैं शुद्ध दृष्टी, शुद्धात्म के तत्व वे ही कहाते ।
मम्यक्त्व के अष्टमूल गुणों को पालन करने से अपना यह दह दुर्लभ जीवन शोभायमान हो जाता है, आत्मा के प्रदेशों से बंधे हुये कर्म कटने लगते हैं और उनकी अपनी आत्मा दिन प्रतिदिन शुद्धता की ओर अग्रसर होती चली जाती है, ऐमा इम सम्यक्त्व का माहात्म्य जानकर जो भव्यजीव अष्टमूल गुणों का पालन करते हैं मानों वे ही पुरुप शुद्ध सम्यक्त्व के पात्र है अथवा पात्र होने के वे ही जीव अधिकारी है।