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श्री तारणस्वामी
सम्यक् विचार
द्वितीय धारा (मालारोहण)
ॐकार वेदंति शुद्धात्म तत्वं, प्रणमामि नित्यं तत्वार्थमा) । ज्ञानं मयं सम्यकदर्शनोत्थं, मम्यक्त्वचरणं चैतन्यरूपं ॥१॥
ओङ्कार रूपी वेदान्त ही है. रे तत्व निर्मल शुद्धात्मा का । ओङ्कार रत्नत्रय की मंजूपा, ओङ्कार ही द्वार परमात्मा का ।। ओङ्कार ही मार तत्वार्थ का है, ओङ्कार चैतन्य प्रतिमाभिगम । ओङ्कार में विश्व, ओङ्कार जग में. ओङ्कार को नित्य मेग प्रणाम ॥
विश्व के श्रेष्ठतम अनुभव एक बार से कह रहे है कि यदि शुद्धात्मा का अनुभव किया जाय तो नममें एक ही माग्भून पदार्थ हिगोचर हागा और वह पदाथ होगा ॐ या प्रकार का रहस्यमे पृगण पद।
श्रांकार-- सम्यग्दशन. मम्यग्ज्ञान और मम्यक चारित्र का निधान है; मान का एक माग है और चेतन के वास्तविक रूप की यदि कोई प्रतिमूर्ति है तो वह भी ओंकार ही है।
___ संसार के समस्त पदाथ व नच्चों में अग्रगण्य उम ओंकार पर को मैं मन झुमाकर अभिवादन करता है।
मालारोहा ग्रन्थ की इस प्रथम गाथा में जिम ओंकार का अभिवादन श्री नाना म्वामी ने किया है उस ही ओंकार के गुणों का वर्णन इम ग्रन्थ की ३२ गाथाओं में करके शिष्य ममूह को यह उपदश दिया है कि भी भव्य जीवा ! तुम भी प्रकार के उन गुणों को जो कि मिद्धां में प्रत्यक्ष आर तुम्हाग आत्मा में प्रच्छन्न रूप से विदामान हैं प्रगट करी, आरोहण करो अथान ओंकारम्बम्प अपनी आत्मा के गुणरूपी माला को कंठ में पहिनी, धारण करो, जिस आत्म-गुणमाला को पहिन कर अनन्त जीवों ने सिद्धपद प्राप्त किया है।