________________
१२ ]==
=सम्यक् विचार===
दृष्टतं शुद्ध समयं च, सम्यक्त्वं शुद्धं ध्रुवं । जानं मयं च मंपूर्ण, ममलदृष्टि मदा बुधैः ॥१८॥ ज्ञान-नीर के अवगाहन में, अमत् भाव मिट जाता है । परम शुद्ध सम्यक्त्व मात्र ही, फिर हिय में दिख पाता है । शुद्ध बुद्ध ही दिखते हैं फिर, आंखों में प्रत्येक घड़ी । दिखता है बस यही ज्ञान की, अन्तर में मच रही झड़ी ॥
ज्ञान नीर में स्नान करने से मिथ्यात्वभाव ममूल नष्ट हो जाता है और फिर ना नहां ज्ञान को मम्यकाव की ही नोकिया रिलाई पड़ना है । उनको दृष्टि जहां जानी है. यहां उसे फिर शुद्धान्मा की ही छवि के दर्शन होते हैं, म कांकी की झलक के मामन अब उस कृत्रिम झांकियों के प्रति प्रम अथवा मान्यता नहीं रह जात बार नस पाठों पहरमा मालूम पड़ता है मानों अन्तर में ज्ञान की झड़ी नगई है।
लोकमढ़ न दृष्टंते, देव पाखंड न दृष्टते । अनायतन मद अष्टं च, शंकादि अष्ट न दृष्टते ॥१९॥ ज्ञान-नीर से मिट जाता है, तीन मूढ़ताओं का ताप । अष्ट मदों का मन-मन्दिर में, फिर न शेष रहता सन्ताप ॥ छह अनायतन डरते हैं फिर, नहीं हृदय में आते हैं।
अष्ट दोष भी तस्कर नाई, देख इसे छिप जाते हैं ॥ ज्ञानरूपी जल में स्नान करने से देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डमूढ़ता, इन तीनों का नाश हो जाता है। अज्ञानपूर्वक किये हुये ६ कमों में सुधार की लहर पैदा हो जाती है, आठों मद विला जाते हैं और शंकादिक अष्ट दोषों के भी पंख लग जाते हैं। तात्पर्य यह कि आत्म-सरोवर में स्नान करने से हृदय में प्रगाढ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है।