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सम्यक् विचार = कषायं चत्रु अनंतान, पुण्य पाप प्रक्षालितं । प्रक्षालितं कर्म दुष्टं च, ज्ञानं स्नान पंडितः ॥१४॥ पुण्य पाप दोनों रिपुओं को, क्षय कर देता है यह नीर । मलिन कषायें छिप जाती हैं, देख रश्मि से इसके तीर ।। कर्म-नृपति की सेना को भी, कर देता यह जल-भट चूर्ण । ऐसा है यह ज्ञान-उदक का, अवगाहन मंगल-परिपूर्ण ॥
क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार अनन्तानुबन्धी कपाय भी फिर उसके साथ नहीं रह पाती है जो इस अात्म-मरोवर में स्नान करता है, पुण्य पाप भी दोनों इसके जल से प्रक्षालित हो जाते हैं
और अष्टकर्म की सेना तो इनके ज्ञान-नीर को देखते ही पलायमान होने लगती है । एसे इम आत्मसरोवर में विद्वज्जन म्नान करते हैं। वास्तव में वे ही सच्चे पण्डितजन है ।
प्रक्षालितं मनश्चपलं, विधि कर्म प्रक्षालिते । पंडितो वस्त्र संयुक्तं, आभरनं भूपण क्रियते ॥१५॥ चंचल मन भी ज्ञान-नीर से, प्रक्षालित हो जाता है । द्रव्य, भाव, नोकर्म-यूथ भी, वहां न फिर दिख पाता है । सम्यक् विधि से परम ब्रह्म को, जब उज्वल कर देता नीर । तब ज्ञानी जन धारण करते, हैं अपने आभूषण चीर ॥
जो मर्कट के समान चंचल है ऐसा वह मन भी इस आत्म-सरोवर के जल में स्नान करने से एकदम शांत हो जाता है। तीन प्रकार के कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म इस जल से शनैः शनैः धुलते जाते हैं, और वह स्नान करने वाला पंडित निर्विकार स्थिति में पहुंच जाता है और उसके ज्ञानदर्शनादि रूप जो अन्तरंग वस्त्राभूषण हैं उनसे वह शोभायमान हो जाता है, जिसके सामने बाह्य बहुमूल्य वस्त्राभूषणों की कोई कीमत नहीं ।