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सम्यक् आचार
रयनतयं सुद्ध संपूरनं, संपूरनं ध्यान मंजुतं । रिजु विपुलं व उत्पादने, मनपर्जय न्यानं धुवं ॥४५४॥
साधु शुद्धतम रन्नत्रय के. होते हैं गंभीर निधान । सम्यक विधि ध्रा अनल ध्यान में रहते हैं वे मग्न सुजान । इन्हें ध्यान से ऋजु विपुगे मी वे निधि मिल जानी हैं । जो त्रिकाल प्रत्यक्ष बनाकर. केवलज्ञान जगाती हैं ।
साधुगण रत्नत्रय के गंभीर निधान हुआ करते हैं वे आत्मा के निश्चल ध्यान में मग्न रहा करते हैं और अपनी साधना से अात्मा में उम रितु और विपुल मन:पर्यय ज्ञान की ज्योति जगा लेते हैं, जो केवलज्ञान को उत्पन्न कर उन्हें चर चर के ज्ञान से साक्षात्कार करा देनी है।
वैराग्य त्रिविहं मुद्धे मंमारे तजति तृनं । भूषन रयनतयं मुद्धं, ध्यानारूढ स्वात्म चिंतनं ॥४५५॥ भा. गरीर, भोगों से निस्पृह, पूज्य माधु हो जाते हैं । यह संसार असार ! इस वे, तृण समान ठुकराते हैं। निमल रत्नत्रय ही होते. उनके आभूषण. श्रृंगार ।
स्वात्म-रमण में ही पाते हैं, वे पुनीत आनंद अपार ॥ साधुगण संसार, शरीर और भोग इन तीन जंजालों को तोड़कर पूर्ण वैराग्यवान हो जाते हैं और इस संसार की समस्त वामनाओं को तृण के समान तोड़कर अपने पदों से ठुकरा देते हैं। रत्नत्रय की आराधना ही उनका एकमात्र भूषण होता है और वे ध्यानारूढ़ रहते हुए अपने आत्मा का ही अनुभव किया करते हैं।