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... सम्यक आचार-~~~~~~~~~~~~~~............ [२४३
अप्पं च तारन सुद्ध, भव्य लोकैक तारकं । सुद्धं च लोकलोकत्वं, ध्यानारूढं च साधवा ॥४५२॥
जो होते सत्माधु विज्ञ, वे होते तारणतरण महान । स्वयं पार हो. पार लगाते, वे त्रिलोक को पोत समान ।। तीन लोक में दिखता है बस. उन्हें आतमा ही अभिगम । धर्मध्यान में ही रहते हैं. लीन निरन्तर के मुणधाम ।
जो अपनी आत्मा को विशुद्ध प्रात्मा बनाकर, स्वयं तर जाते तथा दूमरी आत्माओं को भी अपने उपदेश से इस संसार-सागर से पार लगा देते हैं; तीन लोकों में भरे हुए द्रव्यों में जिन्हें एक प्रात्मा ही मारभूत पदार्थ दृष्टिगोचर होता है, वही सच्चे आत्मनिष्ठ साधु कहलाते हैं ।
मन च सुद्ध भावस्य, सुद्ध तत्वं च दिस्टते । संमिक दर्सनं सुद्ध, सुद्धं तिअर्थ संजुतं ॥४५३॥ शुद्ध आत्मिक मावों को ही, नित्य साधुजन च्याते हैं । आत्मतत्व को ही सम्यक विधि, वे अनुभव में लाते हैं । उनका अंतस्तल रहता है, शुचि सम्यग्दर्शन साकार ।
रत्नत्रय से जगमग करता, रहता है उनका संसार ॥ साधुगण शुद्ध आत्मिक भावों का ही मनन और नित्यप्रति उसका ही दर्शन किया करते हैं। उनका हृदय शुद्ध सम्यग्दर्शन से ओतप्रोत रहता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीन रत्नों की निधि उनकी आत्मा को प्रति समय प्रकाशित बनाती रहती है ।