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- सम्यक् आचार
धर्म ध्यानं च संजुतं, प्रकासनं धर्म सुद्धयं । जिन उक्तं जस्य सर्वन्यं, वचनं तस्य प्रकास ॥ ४५० ॥
शिव-सुख-साधन धर्मध्यान ही, नित्य साधुजन ध्याते हैं । मंगलकारी शुद्ध धर्म ही, वे प्रकाश में लाते हैं ॥ श्री जिनेन्द्र ने बरसाये हैं. निज मुग्वसे जो वचन महान । साधु उन्हीं से जगमग करते, इस भूतल को सूर्य समान ॥
जो आत्मरूप धर्मध्यान की आराधना करने में तल्लीन रहा करते हैं; शुद्धात्म धर्म का जो जग को उपदेश देते हैं तथा वीतराग हितोपदेशी और सवज्ञ प्रभु ने जिन तत्वों का कथन किया है, उन्हीं का प्रकाश जो जगत में करते हैं, वही परम हितैषी पूज्य साधु कहलाते हैं ।
मिथ्यात त्रय सल्यं च कुन्यानं त्रय उच्यते । राग दोषं च येतानि, तिक्तते सुद्ध साधवा ||४५१ ॥
तीन तरह के मिथ्यादर्शन, तीन तरह के मिथ्याज्ञान । तीन तरह की शल्य, शूल सी, देती हैं जो दुःख महानः ॥ ये सारे ही दोष साधु के पास न जाने पाते हैं । होते जो सत्साधु, इन्हें वे तृण से तोड़ बहाते हैं ॥
जो तीन तरह के मिध्यात्व, तीन तरह के कुज्ञान और तीन तरह की शल्यों से बिलकुल विमुक्त
हो जाते हैं और रागद्वेष व संसार में जितने भी अन्य प्रकार के दोष होते हैं, उन सबसे जो अपना हृदय रिक्त बना लेते हैं, वही शुद्ध संयमी साधु कहलाते हैं ।