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= सम्यक विचार
निश्चयनय जानते, शुद्ध तत्त्व विधीयते । ममात्मा गुणं शुद्धं, नमस्कारं शाश्वतं ध्रुवं ॥२॥
जिन्हें वस्तु के सत् चित् ज्ञायक, या निश्चयनय का है ज्ञान । वही अनुभवी पारखि करते, निज स्वरूप की सत् पहिचान ।। अन्तस्तल-आमीन आत्मा, ही है अपना देव ललाम । आत्मद्रव्य का अनुभव करना, ही है सच्चा अचल प्रणाम ।।
जो पुरुप निश्चय नय और केवल निश्चय नय को ही वस्तु को परखने की कमोटो मानते हैं, केवल वही इम मंसार में मन ओर अपन की वाम्नविक परीक्षा कर मकन है, और केवल वही शुद्धात्मा के गुणों को परग्ब सकने में समर्थ हो पाते हैं। उन जैसे समर्थवान पुरुषों को हो सम्यग्दष्टि पुरुष कहा जाता है ।
_अपने अंतस्तल में जो आत्मदेव विराजमान है वही निश्चयनय से वह देव है जिसे जिनवाणो हितोपदेशी, वीतराग, सर्वज्ञ और मोक्षप्रदायक के नाम से संबोधन करती है। ऐसे शुद्धात्मा रूपी जगत-प्रभू को मैं ध्रुव एवं शाश्वत मानकर दृढ़ निश्चयपूर्वक ( अचल भाव से ) नमस्कार करता हूँ।
ॐ नमः विंदते योगी, सिद्धं भवत् शाश्वतं । पंडितो सोपि जानते, देवपूजा विधीयते ॥३॥ योगीजन नित ओम् नमः का, शुद्ध ध्यान ही धरते हैं। 'सोऽहं' पद पर चढ़कर ही वे, प्राप्त सिद्ध-पद करते हैं। 'ओम् नमः' जपते जपते जो, निज स्वरूप में रम जाता ।
वही देवपूजा करता है, पंडित वह ही कहलाता ॥ जो वास्तविक योगी-मुनि होते हैं वे नित प्रति "ॐ नमः " का ही पारायण किया करते हैं और इसी मंत्र के पारायण-पोत पर चढ़कर वे भवसागर से पार होकर सिद्ध और शाश्वत पद प्राप्त कर लेते हैं।
__ जो 'ओम् नमः' का मनन करते ही निजस्वरूप में लवलीन हो जाता है वही उसकी सच्ची देवपूजा करता है और वही सच्चा पंडित है, ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है।