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सम्यक् विचार
"महावीर की विचारधारा व्यक्तिमूलक थी । भारताय संस्कृति में भी विचारों की एकता की अपेक्षा उनके समन्वय का अधिक महत्व रहा है, विचारों के समन्वय को ही म्याद्वाद कहते हैं। सत्य को समग्ररूप से जानने के लिए जब हम उसे कई दृष्टियों में देखते हैं तो ज्ञान में नम्रता
आती है और मन से दूसरे के विचारों के प्रति आस्था जगती है । संक्षेप में उनके कथन के अनुसार समाज-रचना का आधारभूत तत्त्व योग्यता है, जन्म नहीं; व्यक्ति का आदर्श अकिंचनता है, संचय नहीं; और लोकसेवा की कसौटी विचारों का समन्वय हे, एकता नहीं।"
"भारतीय संस्कृति उस महानदी के समान है जिसमें नाना विचारप्रवाह मिलते हैं और जिससे निकलते भी हैं, पर जो लोक में हमेशा बहती रहती है, उसके तट पर कई तीर्थ बन और मिटे । तीर्थकर महावीर ने भी लगभग ढाई हजार वर्ष पहले एक सदिय तीर्थ की रचना की थी, भल ही वह आज समय के प्रवाह में बिखरी प्रतीत हो, पर उसके निर्माण की कला अमिट है, और कोई चाह तो नये तीर्थ के निर्माण में उसका उपयोग कर सकता है। उनकी यह कला थी कि लोक की उपासना के लिए लोक की वासना छोड़ दो, साधना द्वारा अपने आपको इतना तग्ल बनाओ कि लोक में घुलमिल सको, युग की आस्तिकता के अनुसार समन्वय-दृष्टि में ऐसे आदर्श चुनी और उन्हें जीवन में ढाली कि तुम्हारा जीवन भावी समाज की जीवनपद्धति का आधार बन जाए।