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सम्यक् आचार
परमिष्टी साधनं कृत्वा, सुद्ध संमिक्त धारना । ते नरा कर्म षिपनं च, मुक्तिगामी न संसयः ॥ ४६०॥
पंच परम प्रभु की शरणों में, जो ले लेते हैं विश्राम । सम्यग्दर्शन से शोभायुत, कर लेते जो अंतर धाम ॥ वे कर्मों की लौह - बेड़ियाँ, चूर चूर कर देते हैं । शिव पथ पाकर निश्चय ही वे, मुक्तिनगर पा लेते हैं ॥
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जो मानव, अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच विभूतियों की शरण लेता है और अपने अन्तस्तल को शुद्ध सम्यक्त भावना से ओतप्रोत बना लेता है, वह अपने कर्मों की बेड़ियों को चूर चूर कर निसंशय ही मुक्तिपद प्राप्त कर लेता है ।
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