________________
..
.
सम्यक आचार....
.
.. २४५
केवलं भावनं कृत्वा, पदवी अर्हन्त सार्धयं । चरनं सुद्ध समयं च, नंत चतुस्टय मंजुतं ॥४५६॥ लौकिक सिद्धि प्राप्त करने को, साधु नहीं धरते हैं ध्यान । हो कर्मविमुक्त, यही रहता उनका उद्देश्य महान ।। केवलज्ञान मिले का हमको, होवें हम भी कर अर्हन्त । बनं चतुष्टयवान किस निमिप, यही भावना करते सन्त ।।
साधुओं का अात्माप धर्मध्यान का आराधन और पंचमहाव्रत का पालन करना तथा तदनुसार समस्त चारित्र (आचार-विचार ) प्रतिपादन करने का बस एक ही कारण होता है-वह यह कि इस संसार के आवागमन की वे ड़यों को काटकर कैवल्यपद प्राप्त करना; अहत पद प्राप्त करना और प्राप्त करना चार अनन्त चतुष्टय । और इसी श्रात्म-अर्चा में ही वे अपने उपयोग को लगाये रहते हैं।
माधओ साधु लोकेन, तव व्रत क्रिया संजुतं । माधओ सुद्ध न्यानस्य, माधओ मुक्तिगामिनो ॥४५७॥ साधु सदा ही क्रियायुक्त, सम्यक् तप, व्रत आचरते हैं । शुद्ध ज्ञान हो प्राप्त. सदा वे यही साधना करते हैं। ऐसे जो रत्नत्रयधारी, होते सद्गुरु ज्ञानो ।
वे निःसंशय सुमुखि मुक्ति को. पाते नीलपद्य-पाणी ॥ साधु महाराज क्रिया सहित तप व व्रतों का आचरण करने में सदा लवलीन रहा करते है। इन सबको साधन करने का उनका एक ही उद्देश्य होता है और वह केवल शुद्ध ज्ञान प्राप्ति की कामना । रत्नत्रय से पूर्ण शुद्ध भावना के धारी ऐसे जो साधु होते हैं, वे मुक्ति का अचल साम्राज्य पाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं।