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मुक्तिमार्ग के पथिक, तपोपूत
मुनि या साधुओं के कर्तव्य
त्रेपन क्रियाएं व तेरह विध चारित्र का पालन
साधुवो साधु लोकेन, रयनत्तयं च संजुतं । ध्यानं ति अर्थ सुद्धं च, अवधं तेन दिस्ट ||४४५ ॥
साधु लोक में करते हैं नित, रत्नत्रय का ही साधन | रत्नत्रयमय ध्यान उदधि में, करते नित वे अवगाहन || परिग्रहों से आरंभों से, नेह नहीं वे करते हैं । नील गगन में पंछी नाई, वे निर्मुक्त विचरते हैं ॥
साधु निशवासर रत्नत्रय की साधना में ही चूर रहा करते हैं; उनका ध्यान भी आत्मभावना
और रत्नत्रय से ही पूर्ण रहा करता है। न तो वे किसी आरंभ परिग्रह आदिक बंधनों से बंध हुए होते हैं और न संसार की कोई शक्ति ही उन्हें बांधकर अपने मन अनुसार आचरण करा सकती है, अर्थात वे पूर्णमुक्त स्वभाव के धारी होते हैं, और अपने शुद्धाचरण का पालन करते हुए स्वाधीनता से जगत में विहार करते हैं ।