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सम्र्पक आचार
मचित हिरतं जेन, तिक्तंते न विरोधनं । मचितं सन्मूर्छनं च, तिक्तंते सदा बुधै ॥४१६॥ हरित वनस्पतियें जो मानव, रंच नहीं खाते हैं । जो प्रमादवश व्यर्थ न उनको, पीड़ा पहुँचाते हैं। सचित, एकेन्द्रिय, सम्मूर्छन भी तज देते जो प्राणी । वे ही होते हैं, सचित्त प्रतिमा के धारी ज्ञानी ।
जो मचित्त या हरित वनस्पतियों का और एकेन्द्रिय सम्मूर्छन का बिलकुल त्याग कर देते हैं तथा जो किमी भी वनस्पतिकायिक जीव को प्रमादवश न तो तोड़ते हैं, न उसे व्यर्थ में किसी प्रकार का कष्ट ही पहुंचाते हैं, वही पुरुष मचित्तप्रतिमा के धारण करनेवाले कहलाते हैं ।
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सचित्तं हिरत तिक्तं, अचित्तं सार्ध तिक्तयं । मचित चेतना भावं, मचित्त प्रतिमा सदा बुधै ॥४१७॥
सचित वनस्पति साथ मिली हुई, अचित वनस्पति प्राणी । सेवन करते हैं न कभी, पंचम-प्रतिमा-धर ज्ञानी ।। जो सचेत आतम होता है. सत्, चित्, सुख का साधन । मचित-त्याग-प्रतिमा-धर करते, उसका ही आराधन ॥
जो मचित्त या हरित वनस्पतियों का तो त्याग कर ही देते हैं, किन्तु जो सचित्त के साथ मिली हुई अचित्त वनस्पति का सेवन भी नहीं करते हैं; सदा शुद्धात्मा के ध्यान में ही जो तल्लीन रहा करते हैं, वही पुरुष मचित्तप्रतिमा का धारण करनेवाले कहलाते हैं।