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सम्यक् आचार
उववास फलं प्रोक्तं, मुक्ति मार्गस्य निस्चयं । संसार दुःख नामंते, उववामं सुद्धं फलं ॥४१२॥ विज्ञो! यह उपवास अनेकों, मृदु फल का दाता है । इसका साधक मुक्तिमार्ग को, निश्चल ही पाता है ॥ इस तप से सांसारिक दुःखों का, दल-बल मिट जाता । स्वात्म-रमण-सुख इस साधन से, वृद्धि अलौकिक पाता ॥
जो पुरुप सम्यक् उपवास का साधन करता है, वह नियम से मोक्षफल का भोगनेवाला बन जाया करता है। इस उपवास-साधन से जहाँ संसार दुःखों का नाश हो जाना है, वहां आत्म-भावों की भी अलौकिक रूप से वृद्धि होते, इसी उपवास से देखी गई है ।
संमिक्त बिना व्रत जेन, तपं अनादि कालयं । उवासं माम पाषं च, मंमारे दुष दारुलं ॥४१३॥ सम्यग्दर्शन बिन, अनादिकालीन तपस्याधारी । मिथ्या तप तपने से पाता, भव भव दुख दुखकारी ॥ मासों के पक्षों के भी. उपवास, तभी सुखदाई । उनके कण कण में जब गूंजें, दर्शन-चरण सुहाई ॥
विना सम्यक्त के साधे हुए व्रत, तप और क्रियाकांड ये सब मात्र मंमार के दुःखों को ही बढ़ाने वाले हुआ करते हैं फिर ये व्रत तप अनादिकाल से ही और पन और मासों के ही होते क्यों न चले आये हों ?