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सम्यक् आचार
मन वचन काय हृदयं सुद्धं, सुद्ध समय जिनागमं । विकहा काम सद्भावं तिक्तते ब्रह्मचारिना ॥ ४४२ ॥
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ब्रह्मचर्य व्रत का धारी जो होता है गुण आगर । वह त्रियोगको आतमरत रख, रखता नित्य उजागर ॥ ऐसी चर्चाओं से वह नर भित्र सदा रहता है । कामभाव, विकथाओं का, जिनमें पोखर बहता है ॥
ब्रह्मचर्याशुव्रत को पालने वाले जो ब्रह्मचारी होते हैं वे मन वचन काय त्रियोग को सर्वदा निज आत्मा में और कथित ग्रन्थों में संलग्न बनाये रखते हैं। उनका मन वचन या तन ऐसी विकथाओं में रंजायमान नहीं होने पाता, जो विषय वासनाओं से भरी हुई होती हैं, और जिनके कहने सुनने से कामभावना जाग्रत हो जाती है।
अपरिग्रह
परिग्रह प्रमानं कृत्वा, पर द्रव्यं नवि दिस्टते ।
अनृत असत्य तिक्तं च, परिग्रह प्रमानस्तथा ॥ ४४३ ॥
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बाह्य परिग्रह - दल प्रमाण जब मानव करलेता है । पर द्रव्यों की ओर तनिक भी दृष्टि नहीं देता है ॥ अनृत, असत् द्रव्यों से बिलकुल, तजदेता है नाता | वह नर तत्र परिग्रह - प्रमाण-व्रत का धारी कहलाता ॥
परिग्रह-परिमाण व्रत में परिग्रहों का एक परिमाण कर लिया जाता है—एक सीमा बाँध ली जाती है, और उस सीमा के बाद संसार का सारा द्रव्य मिट्टी के ढेले के समान ही समझा जाता है । अमृत और असत्य पदार्थों से भी इस व्रत सर्वथा नाता तोड़ दिया जाता है। जो इस व्रत का पालने होता है वह श्रावश्यकतानुसार परिग्रह रखते हुए भी अंतःकरण से निर्मोही बना रहता है।
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