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सम्यक् आचार"
ब्रह्मचर्य प्रतिमा वंभ अबभं तिक्तं च, सुद्ध दिस्टी रतो सदा। मुद्ध दर्सन ममं सुद्धं, अबभं तिक्त निस्चयं ॥४२०॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमा में नित मन, ब्रह्म-रमण करता है । इसका साधक शुद्ध दृष्टि हो, ब्रह्म ध्यान धरता है। सम्यग्दर्शन-सी भावों में, जब शुचिता आ जाती । ब्रह्मचर्य-प्रतिमा तबही आ, अंतर-सेज सजाती ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमा में ब्रह्म का पालन और अब्रह्म का त्याग करना होता है। इस प्रतिमाधारी का मन नितप्रति ब्रह्म में ही रमण किया करता है; उसके हृदय में शुद्धदृष्टि का जागरण और समता भाव का उदय हो जाता है। जब श्रात्मा में सम्यग्दर्शन का प्रखर प्रकाश हो जाता है. तभी ब्रह्मचर्य नामक प्रतिमा का धारण किया जाता है।
जस्य चितं धुवं निस्चय, ऊर्ध अधो च मध्ययं । जस्य चित्तं न रागादि, प्रपंचं तस्य न पस्यते ॥४२१॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी का, मन निश्चल रहता है । त्रिभुवन तल में चित्त न उसका, नेक कहीं बहता है । जिसके उर में रागद्वेष के, उड़ते मेघ न काले । उसमें बहते हैं न प्रपंचों के, मलपूरित नाले ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी का चित्त ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक इन तीनों लोकों में कहीं भी विचलित नहीं होता: सदा समताभाव में लीन बना रहता है। उसके सन्निकट रागद्वेष स्वप्न में भी नहीं आने पाते और न वह कभी प्रपंचों के जाल पूरने में ही व्यस्त रहता पाया जाता है।