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सम्यक् आचार
आरंभ त्याग प्रतिमा
आरंभ मन पसरस्य, दिस्टं अदिस्टं संजुतं । निरोधनं च कृतं तस्य, सुद्ध भावं च संजुतं ॥ ४२६॥
देखा या कि सुना या जिसको अवसर पाकर पाया । ऐसे जिन आरंभों में, जिसने मनको न भुलाया ॥ शुद्ध भावनाओं से करता, जो नर हृदय उजागर | वह आरंभ - त्याग - प्रतिमाधर होता सुजन गुणागर ॥
जो देखे हुए, सुने हुए, अनुभव किये हुए या अवसर पाकर पाये हुए किसी भी आरंभ में अपने मनको नहीं लगाता है: श्रारंभों की ओर से सदा उदासीन भाव धारण किये रहता है और सदा शुद्धात्मचितवन में लीन रहा करता है, वह पुरुष आरंभत्याग नाम को प्रतिमा का पालन करता है।
अनृत अचेत असत्यं आरंभ जेन क्रीयते ।
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जिन उक्तं न दिस्टंते, जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७ ॥
[२२७
अनृत, अचेत, असत्यपूर्ण जो, करते आरंभ काले ।
श्री जिन के आदेशों को जो भूल रहे मतवाले || ऐसे अज्ञानी, पापी, उदरों के पोषी मोही ।
होते हैं जिन - आज्ञा - लोपी, मिथ्यात्वी, जिनद्रोही ॥
जो विवेकाविवेक छोड़कर, अनृत, अचेत और असत्य उद्यमों को उदर पोषण की दृष्टि से अपने हाथ में लेते हैं, वे सवज्ञ महाप्रभु के आदेशों का रंचमात्र भी पालन नहीं करते और इस तरह मिथ्यात्व पूरित कर्म करने में तत्पर हो, जिनद्रोह का पाप अपने शीश पर उठाते हैं ।