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सम्यक आचार
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विकहा विमन उक्तं च. चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं । नगेन्द्र विभ्रमं रूपं. वर्नत्वं विकहा उच्यते ॥४२२॥ सप्त व्यसन से सम्बन्धित जो, चर्चाएं रहती हैं । चक्र, इन्द्र, धरणेन्द्रों को जो, चर्चाएं कहती हैं । ऐसी चर्चाएं जो मनमें, रागादिक उपजातीं ।
परम, श्रेष्ठ, जिनवर के द्वारा, विकथाएं कहलाती ।। __ जिनमें व्यसनों की, चक्रधनियां की, इन्द्रों की, धरणन्द्रों को, राजाओं की या एमी चर्चा रहती है जो मन में रागद्वेप या विभ्रम उपजाद व सब कथानक विकथाएं कहलाते है।
व्रत भंगं राग चिंतते, विकहा मिथ्या रंजितं । अब तिक्त वंभं च, बंभ प्रतिमा म उच्यते ॥४२३॥ झूठे रागों के चिन्तन से, व्रत खण्डित हो जाते । विकथाओं से अनृत् असत्, मिथ्यात्व हृदय में आते ॥ यह सारी अब्रह्म-क्रिया, जब सब तज दी जाती है ।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा तब ही, निज मुद्रा दिखलाती है । इन रागद्वेष और मिथ्यात्व से सनी हुई विकथाओं के चिन्तवन से ब्रह्मचर्य नामक व्रत भंग हो जाता है, क्योंकि इनके कहने सुनने से अब्रह्म पोषण का दूषण लगता है। जब अब्रह्म उपासना का सर्वथा त्याग हो जाता है तब ही सफलता पूर्वक ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की जा सकती है।