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सम्यक् आचार
उववासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छन जथा । भक्ति पूर्वं च इच्छंते, तस्य हृदय समाचरेत् ॥ ४१० ॥
जो मानव प्रोषध करने की, शुभ इच्छा करता है । वह विराग के आदेशों को, मस्तक पर धरता है ॥ पर अंतरतम से ही जब उपवास किया जाता है । तब ही वह उपवास नाम की, शुचि संज्ञा पाता है ॥
उपवास करने की साधारण इच्छा करना, जिनराज प्रभु के आदेशों का सम्मान करना है, किन्तु इच्छा में भक्ति या सम्यक्त का समावेश हो जाना - आदेशों को मान्य कर लेना प्रत्यक्ष या क्रियारूप में उपवास कर लेना है। तात्पर्य यह कि उपवास तभी होता है, जब उसकी सारी क्रियाओं में सम्यक्त का भलीभाँति तारतम्य हो, विना उसके सम्यक् उपवास संभव नहीं ।
उववासं व्रतं सुद्धं, सेमं संसार तिक्तयं ।
पछितो तिक्त आहारं उववामं तस्य उच्यते ॥ ४११ ॥
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सुजन - शिरोमणि जिस दिन साधें, रे ! उपवास प्रियङ्कर । उस दिन वे भत्र ममता छोड़ें, छोड़ें भाव भयङ्कर ॥ इन संकल्पों को लेकर, जो भोजन छोड़ा जातो । वह ही जिन शासन में भव्यो, शुचि 'उपवास' कहाता ||
जिस दिन उपवास की साधना की गई हो, उस दिनके जीवन में 'शुद्ध उपवास व्रत' ही गूंजना चाहिये और कुछ नहीं । सारे संसार की ममता उस दिन छोड़ दी जाना चाहिये और वह भी प्रतिज्ञा रूपसे अर्थात् उपवास करने की प्रतिज्ञा से पहले यह संकल्प कर लेना चाहिये कि आज मुझे भव, तन और भोग इन तीनों का परित्याग है। संकल्प रूपसे संसार को त्यागना और फिर उपवास धारण करना, बस इसी का नाम शुद्ध उपवास है ।