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सम्यक आचार
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उववासं एक सुद्धं च, मन सुद्धं तत्व माधयं । मुक्ति श्रियं पथं सुद्धं प्राप्तं नात्र (न अत्र) संसया ॥४१४॥ आत्म तत्व की मधुर भावना का पी मादक प्याला । अपने वश कर अपना दुर्दम, मन-मधुकर मतवाला ॥ एक बार भी कर लेता रे! जो उपवास सुजन है । वह निश्चय से पा जाता, चिर सुख का नन्दन-वन है ॥
जो पुरुप शुद्धात्म भाव से, शुद्ध मन के साथ केवल एक उपवास कर लेता है, वह मुक्ति के पथ को पा जाता है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है ।
मचित्त त्याग प्रतिमा
मचित्त चिंतनं कृत्वा, चेतयंति मदा बुधै । अचेतं अमत्य तिक्तंते, मचित्त प्रतिमा उच्यते ॥४१५॥ जो सचित्त या शुद्ध आत्मा, है अगणित सुख साधन । करते हैं उसका ही नितप्रति, जो अर्चन गुणवादन ।। असत् , अचेतन का न कभी भी, जो चिंतन करते हैं । वे सज्जनगण सचित त्याग नामक प्रतिमा धरते हैं ।
...जो नित्यप्रति सचित्त अथवा शुद्धात्मा के चितवन में ही लीन रहता है; अचित्त, अचन और असत्य पदार्थ का जो बिलकुल ही वर्जन कर देता है, वह प्रज्ञाधर मचित्त प्रतिमा का धारी कहलाता है।