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सम्यक् आचार
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सामायिक प्रतिमा
मामायिकं नृतं जेन, सम संपूरन सार्द्धयं । उधं च अर्धं मध्यं च, मन रोधो स्वात्म चिंतनं ॥४०६॥
जो समता-जल से शुचि होकर, ध्यान अचल धरता है । वह नर ही सम्यक ध्रुव निश्चल, सामायिक करता है ॥ सामायिक तब ही, जब होता त्रिभुवन से मन न्यारा । ध्याता को प्रतिनिमिष, आत्म का होता दर्शन प्यारा ॥
जो समता-जल से शुचि होकर, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक इन तीनों लोकों से अपने मन को खींचकर अपनी आत्मा में बढ़ रग्वता है और उसका भली प्रकार चिन्तवन करता है, वही पुरुष नामायिक को मम्यक प्रकार माधना करता है और इसी प्रकार सामायिक करनेवाला सामायिक प्रतिमा का धारण करनेवाला कहा जाता है।
आलापं भोजन गच्छं, श्रुतं सोकं च विभ्रम । मनो वच कार्य मुद्धं. मामायिक स्वात्म चिंतनं ॥४०७॥ सामायिक प्रतिमाधारी जब, सामायिक को धारे । तब वह मन,वच,कायों की, सब हलन चलन निर वारे ॥ भोजन, विभ्रम, शोक, गमन, आलाप और श्रुत भाई । ये तज, ध्याता सामायिक में, ध्यावे आत्म सुहाई ॥
सामायिक प्रतिमा धारण करनेवाले को उचित है कि सामायिक करते समय वह मन, वचन, काय इन तीनों योगों को पूर्ण स्थिर करले; सामायिक के काल वार्तालाप, भोजन, आना जाना, किसी बात को सुनना, शोक, विभ्रम आदि बातों से पूर्ण मुक्त रहना चाहिये, जिससे कि मन की स्थिरता भंग न होने पावे ।