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सम्यक् आचार
एतत दर्मनं दिस्टा, न्यानं चरण सुद्धए । उत्कृष्टं व्रतं सुद्ध, मोष्यगामी न ममयं ॥४०४॥ ज्ञान आचरण शुद्ध बनें, व्रत पावन, शुचि हो जायें । एकोद्देश्य यही ले भविजन, सम्यग्दर्शन ध्यायें ।। इस विधि करता है जो, सम्यग्दर्शन का आराधन । वह नर निःशंकित पाता है, शिवपथ सुख का साधन ॥
ज्ञान और आचरण परिष्कृत बनकर, पूर्ण शुद्ध बन जायें, इस भावना को भाते हुए जो सम्यग्दर्शन की साधना करते हैं. वे नर मोक्ष के अनन्त सौग्य को पाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है :
व्रत प्रतिमा
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दर्मनं साधन जस्य, व्रत तपस्य उच्यते । मा ति तत्वार्थ च, दर्मनं स्वात्म दमनं ॥४०५॥ जो मानव बन जाता है, दर्शन प्रतिमा का धारी । वह ही धारण कर सकता है, व्रत-प्रतिमा सुखकारी ॥ इस प्रतिमा में नित्य नियम से, वह व्रत, तप आचरता। आतम-चिंतनकर नितप्रति वह, आतम-दर्शन करता ॥
जो पुरुष मम्यग्दर्शन की साध पूरी कर लेता है, वही व्रतप्रतिमा धारण करने में समर्थ हो पाता है । इस प्रतिमा को धारण करनेवाला, व्रत, तप नियमों का पूर्ण पालन करनेवाला और अपने श्रात्मा का सदेव चिन्तवन करनेवाला प्राणी हुआ करता है।