________________
सम्यक् आचार
दर्मनं यं हृदयं दिस्टं, सुयं न्यान उत्पादंते । कमठी दिस्टि यथा डिंभ, मुर्य वर्धति य बुधै ॥४०॥ जिसके अंतर में सम्यग्दर्शन, झर झर बहता है । उसमें शुचि श्रुतज्ञान निरन्तर ही, बढ़ता रहता है। कछुए के अंडे पर रखती, दृग बस उसकी माता । इतनी ही सदृष्टि मात्र से, अंडा बढ़ता जाता ॥
जिमकं हृदय में शुद्ध दर्शन विद्यमान रहता है, श्रुतज्ञान उसमें दिन प्रतिदिन प्रचुर मात्रा में बढ़ता ही जाता है। कछए की माता अपने अंडों पर प्रगाढ़ अनुराग की दृष्टि रखती है, पर इस अनुराग दृष्टि मात्रका फल यह होता है कि उसके अंडे अपने आप बढ़ते चले जाते है। उसे उनके लिये कोई कष्ट उठाना नहीं पड़ता।
दर्सन जस्य ह्रिदंश्रुतं, सुयं ज्ञानं च संभवं । मच्छका अंड जथा रेतं, सुयं वर्धन्ति जं बुधै ॥४०१॥ जिसका उर सम्यग्दर्शन का, पावन तीर्थस्थल है । उस उर को ही केन्द्र बनाता, नित श्रुतज्ञान विमल है ।। बालू में मछली का अण्डा, जैसे बढ़ता जाता । तैसे ही समकित थल में. श्रुतज्ञान वृद्धि को पाता ॥
जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन का बीज विद्यमान रहता है, वहां श्रुतज्ञान उत्पन्न होकर अपने आप बढ़ता चला जाता है। मछली रेती में अपने अंडे रख देती है, इसके पश्चात् उसे उसकी चिन्ता नहीं रहती, किन्तु रेती का वातावरण उन अंडों के लिये कुछ ऐसा होता है कि वे वहां अपने आप बढ़ते चले जाते हैं।