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सम्यक् आचार
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अनेय व्रत कर्तव्यं, तप संजम च धारनं । दर्सन सुद्ध न जानते, वृथं मकल विभ्रमं ॥३९८॥
कोई मानव कितने ही व्रत, कर नन क्षीण बनावे ? जप, तप, संयम धारण कर, नितप्रति नव भक्ति बढ़ावे ? पर यदि वह सत्पुरुष नहीं है, सम्यग्दर्शन धारी । तो उसके जप, तप, विभ्रम हैं, व्रत, संयम दुखकारी ।।
व्रतप्रतिमा की साधना में भी सम्यक्त की अन्यतावश्यकता है, क्योंकि व्रत मंयम, और नप, फिर वे चाहे कितनी ही संख्या में क्यों न किये गये हों, विना सम्यक्त के बिलकुल निरर्थक और निम्मार ही होते हैं और शुभ फल देने के बदले मनुष्य को विभ्रम-ग्रस्त बना देते हैं।
अनेक पाठ पठनं च, अनेय क्रिया मंजुतं । दर्मनं सुद्ध न जानते, वृथा दान अनेकधा ॥३९९॥ कितने ही पाठों को कोई, नितप्रति क्यों न उचारे ? चार भांति के पात्रदान कर, नित पटकर्म संवारे ।। पर यदि वह सत्पुरुष नहीं है, सम्यग्दर्शनधारी ।
तो उसके सब दान विभ्रम हैं, पाठ सभी दुखकारी ।। मनुष्य चाहे कितने ही पूजा और स्तुनि के पाट पढ़े दान द या अन्य अन्य धार्मिक क्रियाएं करने में दत्तचित्त रहे, किन्तु यदि उसे सम्यक्त का समीचीन बोध नहीं है या सम्यक्त से उसका हृदय अछूता है, तो उसके ये सारे क्रियाकाण्ड एकदम व्यर्थ और अशुद्ध है।