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सम्यक् आचार
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दर्सन तत्व सरधान, तत्व नित्य प्रकासकं । ज्ञानं तत्वानि वेदंते, दर्मन तत्व सार्धयं ॥३९४॥
आत्म तत्व में श्रद्धा करना ही. सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन ही दर्शाता, तत्वों को बुधजन है ।। आत्म तत्व में जब तक-जिस क्षण तक श्रद्धान न होगा। तब तक, उस क्षण तक. अंतर में सम्यग्ज्ञान न होगा ।
आत्मतत्व में श्रद्धा करना-प्रतीति करना इमीका नाम सम्यग्दर्शन कहा गया है। यह मम्यग्दर्शन तत्वों के म्वरूप को प्रकाश में लानेवाला होता है, अत: जब तक सम्यग्दर्शन या आत्मतत्व ने प्रतीति नहीं होती, नब तक मनुष्य को किसी भी प्रकार सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
संमिक दर्मनं सुद्धं, उर्वकारं च विंदते । धर्म ध्यानं उत्पाद्यते, हियं कारेण दिस्टिते ॥३९५॥ सम्यग्दर्शन का होता है, जब घट में उजियाला । तब ही छल छल छल कि छलकता शुद्धातम का प्याला ॥ दिखता है तब ही आतम में, परमातम पद न्याग । धर्मध्यान का उदित तभी बस, होता है ध्रुव-तारा ।।
जब अन्तस्तल में सम्यग्दर्शन रूपी सूर्य का उदय होता है, तभी महामंत्र ओम् का रहस्य समझने में आता है तभी धर्मध्यान की उत्पत्ति होती है और तभी आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। बिना सम्यक्त्व के इनमें से कोई सी भी बातें संभव नहीं होती।