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सम्यक् आचार
एतत् गुन साई च, स्वात्म चिंता सदा बुधै । देवं तस्य पूजस्य, मुक्ति गमनं न संसयं ॥३६६॥ जो नर पचहत्तर गुणों का, करते विनय सम्मान हैं । जो स्वात्म के ही चिन्तवन में, लीन रखते ध्यान हैं। उन पुरुष को सुरवृन्द भी, आकर झुकाते माथ हैं । वे भव्य बनते मुक्ति-रमणी के, निसंशय नाथ हैं।
जो पुरुप पचहत्तर गुणों की साधना, वंदना व पूजा करते हैं तथा अपनी आत्मा के चिन्तवन में तल्लीन रहते हैं, उन्हें पुरुप तो क्या देवता भी शीश झुकाते हैं और वे निःशंसय मुक्ति के राज्य को प्राप्त करते हैं।
गुरुस्य ग्रंथ मुक्तस्य, राग दोषं न चिंतए । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, मिथ्या माया विमुक्तयं ॥३६७॥ गुरु वही, जो न परिग्रहों की, बेड़ियों से युक्त हों । जो रागद्वेष-कुभावनाओं से, परे हों मुक्त हो । जो तीन रत्नों के विशद, अनमोल दिव्य निधान हो ।
मिथ्यात्व माया को न जिनके, हृदस्तल में स्थान हो । गुरु वही होत है, जो सर्व परिग्रहों से मुक्त हों; रागद्वेष का जो चिन्तवन भी न करते हों; रत्नत्रय के पवित्र जल से जिनकं हृदय प्रदेश पूर्ण पवित्र हों तथा मिथ्या और मायाचार से जो सर्वथा अछूते हों-- सर्वथा विलग हों।