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· सम्यक् आचार
संजमं संजमं सुद्ध, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ति अर्थ न्यान जलं सुद्धं, अमनानं संयम धुर्व ॥३७२॥ निज आत्म में ही रमण करना, सुखद संयम सार है । बस यही संयम, दिव्य रत्नत्रय प्रकाशनहार है। निज आत्मा का ज्ञान-जल ही, रम्य तीर्थ सुजान है । करना इसी में स्नान, संयम यही शुद्ध महान है ॥
अपनी आत्मा में रमण करना, इसी का नाम वास्तव में शुद्ध संयम है और यही संयम वास्तव में शुद्ध तत्व को प्रकाश में लाने वाला होता है। अपनी आत्मा रूपी तीर्थ में, जो अथाह ज्ञान की गंगा भरी हुई है, उसी गंगाजल में स्नान करना, वास्तविक संयम है।
तप
तपस्च अप्प सद्भावं, मुद्ध तत्वस्य चिंतनं । सुद्ध न्यान मय सुद्ध, तथाहि निर्मलं तपं ॥३७३॥
शुद्धात्मा में ही ठहरना, बस तप इसी का नाम है। शुद्धात्मा का चितवन ही, पूर्ण तप अभिराम है ॥ चैतन्य से मंडित जो अपना, आत्मा गुणवान है ।
लवलीन हो जाना उसी में, तप यही गुणवान है । आत्मा के यथार्थ स्वभाव में ठहरना; निशिवासर आत्मा का ही चितवन करना या ज्ञानकूप आत्मा में निमग्न हो जाना, इसी का नाम वास्तव में तप है।