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सम्यक् आचार
ग्यारह प्रतिमाएं
दंसन वय सामाइ, पोसह सचित्त चिंतनं । अनुराग बंभवर्यं च आरंभ परिग्रहस्तथा ॥ ३७९ अनुमति उद्दिष्ट देमं च प्रतिमा एकदसानि च । व्रतानि पंच उत्पादंते, श्रूयते जिनागमं ॥ ३८० ॥
दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित विरत, अनुराग 1 ब्रह्मचर्य, आरंभ, परिग्रह, अनुमति, उद्दिष्ट त्याग ॥ ये एकादश प्रतिमाएं हैं, भव्यो सुख की सागर । पंच अणुव्रत और जिनागम के सागर की गागर ॥
(१) दर्शन, (२ व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोपध, (५) सचित्त त्याग, (६) अनुराग भक्ति, (७) ब्रह्मचर्य, (=) आरंभ त्याग, (६) परिग्रह त्याग, (१०) अनुमति त्याग, (११) उद्दिष्ट भोजन त्याग, ये ग्यारह प्रतिमाएँ होती हैं ।
यहाँ तक एकदेशत्रत की मर्यादा होती है। इन ग्यारह प्रतिमाओं के सीमावद्ध प्रदेश में पंचागुतों की शक्ति को बढ़ाया जाता है और जिन आगमों का यथेष्ट आभास किया जाता है ।
अहिंसा नृतं येन, अमृतेयं भ परिग्रहं ।
सुद्ध तत्व हृदयं चिंते, मार्द्ध न्यान मयं धुवं ॥ ३८९ ॥
हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह और कुशील दुखारी । इन पापों को तज जो बनता, पंच अणुव्रत धारी ॥ ज्ञानमयी, ध्रुव आत्मतत्व का, जो अनुभव करता है । वह नर प्रतिमाऐं पालन को, आगे पद धरता है ||
हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों से जो पूर्ण विमुक्त हो जाता है तथा शुद्ध आत्मतत्व के चिंतन करने ही में जो लीन बना रहता है, वही पुरुष प्रतिमाओं को पालने के लिये अपने पद आगे बढ़ाता है ।