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सम्य क आचार
अन्यानी मिथ्या संजुतं, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं । सुद्धात्मा चेतना रूब, साधं न्यान मयं धुर्व ॥३८८॥ मिथ्यामति से पूरित होते, जो अज्ञानाचारी । उनकी भूल न संगति करते, दर्शन प्रतिमा धारी ॥ सत्, चित्, आनंद का ध्रुव निश्चल, मुकुट पहिरने वाला । होता है बस विज्ञ दार्शनिक का, साथी गुणवाला ।।
दर्शन प्रतिमा धारी पुरुष, अज्ञान तिमिर से व्याप्त तथा माया मिथ्याचार से सने हुये पुरुषों की संगति बिना विलम्ब, अकिंचन पदार्थ की नाई छोड़ देते हैं। उनके जीवन का बस एक ही साथी होता है और वह, उनका सन, चित्, ध्रुव, आनंद, ज्ञानमय आत्मा ! जो प्रतिनिमिप उनके अंतर से उन्हें अपनी अलौकिक छवि दिखलाया करता है।
मद अस्टं संसय अस्टं च, तिक्तते भव्य आत्मनः । सुद्ध पदं धुवं साधं, दर्सन मल विमुक्तयं ॥३८९॥ दर्शन प्रतिमाधारी होता, भव्य आत्मा भाई । त्रास नहीं देते उनको, मद आट महा दुखदाई ॥ सम्यग्दर्शन के जो होते, आठ कलंक सुजन हैं। उनसे होकर मुक्त दार्शनिक, रहते आत्म मगन हैं।
दर्शनप्रतिमाधारी भव्य आत्मा के पास शंकादिक आठ मद भी नहीं रहने पाते हैं। इन दोषों को व उसी क्षण पद से ठुकरा देते हैं, जिससमय वे इस पुण्य प्रतिमा को अंगीकार करते हैं। ज्ञान से ओतप्रोत जो शुद्धात्मा है, उसी के चितवन में ये प्रतिमाधारी सर्व दोषों से मुक्त होकर निमग्न प्राय बने