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• सम्यक् आचार
दान
दात्रं पात्र चिंतस्य, सुद्ध तत्व रतो सदा । धर्म रतो भावं पात्र चिंता दान मंजु || ३७४ ||
मुद्ध
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यह आत्मा परमात्मा का श्रेष्ठ रम्य निधान है । करना इसी का चिंतवन, रे ! पात्रदान महान है ॥ जो शुद्ध आत्मिक धर्म में, लवलीन हैं संयुक्त हैं । वे सत्पुरुष सत्पात्रदान, सुभावना से युक्त हैं
जो शुद्धात्म तत्व में लीन हैं, ऐसे पुरुषों को दान का उत्तम पात्र मानना और उसका पात्रदान के लिये चितवन करना यही दान कहलाता है किन्तु अपनी आत्मा को शुद्धभावों का दान देना अपनी आत्मा में आप ही रमण करना, यही वास्तव में दान और यही वास्तव में आत्म अर्चना में निमग्न उत्तम पात्रों का अहर्निश चितवन करना है ।
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ये पट् कर्म मुद्धं च, जे साधति सदा बुधै । मुक्ति मार्ग धुवं मुद्धं, धर्म ध्यान रतो मदा ॥ ३७५ ॥
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सम्यक्त्व युत षटकर्म की, करते हैं जो नर साधना । वे सुजन करते हैं निरन्तर श्रेष्ठ सत् आराधना || बढ़ते हैं उनके मुक्ति पथ पर ही, चरण अभिराम हैं । रहते हैं धर्मध्यान में, वे लीन आठों याम हैं ॥
जो पुरुष शुद्ध कोटि के पटकर्मों की नित्यप्रति साधना करते हैं, वे नित्यप्रति मोक्षमार्ग की ओर ही अग्रसर होते रहते हैं; आर्त और रौद्र परिणाम उनसे छूट जाते हैं और धर्मध्यान की साधना में ही वे निमग्न बने रहते हैं ।