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१९६] .................... सम्यक् आचार
गुरं त्रिलोक वेदंते, ध्यान धर्म संजुतं । ते गुरं सार्द्ध नित्य, रयन त्रय लंकृतं ॥३६८॥ गुरु वही धर्मध्यान जिनका, एकमात्र निधान हो । त्रिभुवनतली की वस्तुओं का, जिन्हें सम्यग्ज्ञान हो । दर्शन व ज्ञानाचार जिनके, हृदय के नव साज हों ।
संसार में आराध्य बस, ऐसे ही श्री गुरुराज हो । गुरु वही होते हैं, जिन्हें त्रिलोक के पदार्थों का सम्यग्ज्ञान हो; धर्मध्यान में जो सदा डूबे हुए रहते हों और रत्नत्रय से जिनके हृदय प्रदेश भलीभाँति आलोकित हों। जो इतने गुणों से पूर्ण हो बस उन्हीं विभूतियों का आराधन ज्ञानवान पुम्पों को करना चाहिये ।
स्वाध्याय
स्वाध्याय सुद्ध धुवं चिंते, मुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्ध मंपूरनं दिस्टं, न्यान मयं माधं धुवं ॥३६९॥ जो शुद्ध तत्व स्वरूप की. करते सुधा-सी वृष्टि हैं । जिनके कि पद पदमें वसी, शुचिज्ञान की सत सृष्टि हैं ।। इस भाँति के जो शास्त्र हों, श्रुत हों महान पुराण हों । उनके ही बस स्वाध्याय में, संलग्न सबके ध्यान हो ।
जो शुद्ध तत्व के स्वरूप का प्रकाशन करते हों; सम्यक्त्व की जो सृष्टि हों तथा जिनकं प्रत्येक वाक्य और पदों में ज्ञान की पवित्र रसधार बहती हो, ऐसे शास्त्र या धर्म पुस्तकों का शुद्ध हृदय से पठन करना हो वास्तविक बाध्याय होता है और इस प्रकार के स्वाध्याय करने में ही मनुष्य को दत्तचित्त रहना चाहिये।