________________
" सम्यक् आचार
[१८७
करनानुयोग संपूरनं, स्वात्मचिंता सदा बुधै । स्वसरूपं च आराध्यं, करनानुयोग सास्वतं ॥३५०॥ करणानुयौगिक शास्त्र पढ़ने का, यही अभिप्राय हो । हो यही चिंतन, आत्महित का, कौन श्रेष्ठ उपाय हो । करणानुयोगिक ग्रंथ पढ़ने का, उसी क्षण श्रेय है । जिस क्षण सुजन यह जानलें, यह आत्मा ही ज्ञेय है।
करणानुयोग के शात्रों को पढ़कर मनुष्य को अपने आत्म चितवन के साधन ढूंढ निकालना चाहिये, मानो कारणानुयोग के सम्पूर्ण शास्त्र, पढ़ने वाले को बार बार यही सम्बोधन करते हैं। अपने म्वरूप का आराधन करना ही, करणानुयोग के सम्पूर्ण शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेना है।
सुद्धात्मा चेतन जेन, उर्व हियं श्रियं पदं । पंच दीप्ति मयं सुद्ध, सुद्धात्म सुद्धं गुनं ॥३५१॥ जो शुद्ध आतम का कराते, इस त्रिजग को ज्ञान हैं । जो ॐ हीं व श्रीं के, गाते अलौकिक गान हैं। जिनके प्रकाशित पंचदीप्ति स्वरूप से शुचि गात्र हैं । शुद्धात्म-गुण से पूर्ण वे, करणानुयौगिक शास्त्र हैं।
जो तीनों लोक को शुद्धात्मा का ज्ञान करायें; ओम् ह्रों व श्री पदों पर विस्तृत प्रकाश डालें और पाँचों परमेष्ठियों का स्पष्ट रूप समझायें तथा परिणामों की उन बारीक से बारीक परिणतियों का ज्ञान करायें कि जिनके आधार से गतियों के गमनागमन का स्पष्ट मान होने लग जाता है, वही करणानुयोग के शास्त्र कहलाते हैं ।