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सम्यक आचार
प्रथमानुयोग पद विंदंते, विजनं पद मन्द यं । तिअथं पद सुद्धस्य, न्यानं आत्मा तुव गुनं ॥३४८॥ प्रथमानुयौगिक शास्त्रों का, पठन धर्म महान है । उनके जो व्यंजन, शब्द, पद हैं. ज्ञेय उनका ज्ञान है ॥ इनका कथानक नित्य प्रति, उज्वल बनाता ज्ञान है । उस ज्ञान से पाता निरंतर, वृद्धि आत्म-निधान है ।
प्रथमानुयोग शास्त्रों को पढ़कर, उनके व्यंजन पद व शब्दों के अर्थों का मनन करना चाहिये । इनके कथानक जिनमें कि महान पुरुषों के चरित्र-चित्रण मिलते हैं, ज्ञान को उज्ज्वलता प्रदान करते है जिससे आत्मा की ज्योति निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है। .
विजनं च पदार्थ च, सास्वतं नाम सार्ध यं । उर्व कारस्य वेदंते, साधं न्यान मयं धुवं ॥३४९॥
व्यंजन, पदार्थ व नाम ये सब, ध्रुव, अमर सुखसोर हैं । बुधजन वही रचते जो इनमें, ओम् का संसार है ॥ जो ज्ञानमय, शुचि आत्मा, अगणित गुणों की धाम है ।
करना उसी का चिन्तवन, यह ही सुजन का काम है ॥ व्यंजन, पदार्थ व नाम ये सब अविनाशशील ध्रुव पदार्थ हैं। अल्पज्ञ लोग इन्हें सहज ही पढ़ जाते हैं, पर विज्ञजन वही होते हैं जो, इन में ओम् की पुण्य छबि निरखकर, उसका ही दर्शन मनन और चितवन करते हैं। प्रत्येक वस्तु में आत्मा की झांकी देखना और उसके रुप का चितवन करना, यही प्रज्ञाधारी पुरुषों का कर्तव्य होता है।