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सम्यक् आचार
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स्वाध्याय
न्यानं गुनं च चत्वारि, श्रुतं पूजा सदा बुधै । धर्मध्यानं च संजुक्तं, श्रुतं पूजा विधीयते ॥३४६॥
रे ! ज्ञान गुण दायक, जगत में जो अनंत प्रयोग है। सर्वज्ञ माषित सुश्रुति के, उनमें चतुर अनुयोग है। इन सुश्रुतों का पूजना, प्रति महजन का कम है।
पर धर्म-ध्यान समेत. श्रुत-आराधना ही धर्म है ॥ ज्ञान और गुणों को प्रदान करनेवाली जो श्रुतियां हैं उनकी चार कोटियें हैं। ये कोटियं अनुयोग कहलाती हैं। इन शास्त्रों का विनय सम्मान व पूजन हर एक विवेकवान पुरुष को करना चाहिये, किन्तु विनयसम्मान या पूजन कैसा ? धर्म ध्यान सहित-सम्यक्त्व सहित-आत्मानुभूति सहित ! बिना सम्यक्त्व की भावना के श्रुतपूजन से क्या तात्पर्य ?
प्रथमानुयोग करनं च, चरनं द्रव्यानि विंदते। न्यानं तिअर्थ संपूरनं, साधं पूजा सदा बुधै ॥३४७॥ प्रथमानुयोग प्रथम, द्वितिय करणानुयोग महान है । चरणानुयोग तृतीय, द्रव्य चतुर्थ भेद सुजान है ॥ इनमें भरा रहता जो, रत्नत्रयमयी विज्ञान है । करता उसी की अर्चना, जो विज्ञ है-गुणवान है ॥
प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग, इस तरह इन चार अनुयोगों के शास्त्रों में तीन रत्नों से परिपूर्ण जो अमोलक ज्ञान भरा होता है, विद्वान सदा उसी की पूजा व विनय करता है व उसी को अपना शीश झुकाता है।