________________
सम्यक् आचार
.... [१८३
माधु गुनस्य संपूरनं, रयनत्रय लंकृतं । भव्य लोकस्य जीवस्य, रयनत्रयं पूजितं ॥३४२॥
रहते गुणोदधि साधु, . अट्ठाईस गुण की खान हैं । उनके हृदय में जगमगाते, तीन रत्न महान हैं। सम्यक्त्व के प्रतिविम्ब, ऐसे साधु जो गुणधाम हैं । उनकी ही करते अर्चना बस, विज्ञ आठों याम हैं।
HOM
... साधु परमेष्ठी पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रियनिग्रह, छह आवश्यक, कंशलोंच, दिगम्बरत्व म्नान त्याग, दंतधावन त्याग, खड़े भोजन, एक बार भोजन, भूमि शयन इन २८ गुणों से युक्त होते है। रत्नत्रय से उनकी आत्मा पूर्ण प्रकाशित रहती है। जो भव्य जीव होते हैं, वे रत्नत्रय के साक्षान स्वरूप, इन साधु परमेष्ठियों की ही अर्चना करते हैं।
देवं गुरं पूज सार्धं च, अंग संमिक्त सुद्धये । माधं न्यान मयं मुद्ध, संमिक्त दरमन उत्तमं ॥३४३॥ सत् देव, गुरु और शास्त्र की आराधना सुख सेतु है । सम्यक्त्व-साधन की कि यह पूजन, सरलतम हेतु है॥ पर विज्ञजन ! समझो, सुनो, सम्यक्त्व जिसका नाम है । वह सच्चिदानंद आत्मा का, चितवन अभिराम है।
. . . - देव,गुरु व शास्त्र की पूजा करना व उनमें अटल श्रद्धा रखना, यह सम्यक्त्व का एक प्रधान अंग है, किन्तु अपने ज्ञानसिन्धु आत्मा में प्रतीति रखना और उसका नित्यप्रति चिन्तवन करना, यह सबसे उत्कृष्ट कोटि का सम्यग्दर्शन है।