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सम्यक् आचार
साधुओ साधु लोकस्य, दर्सन ज्ञान संजुतं । चारित्रं आचरनं जेन, उदयं अवहिं संजुत्तं ॥३४०॥ होते जो अट्ठाईस गुण युत, साधु पूज्य महान हैं । वे ज्ञानयुत नित शुद्ध दर्शन का, कि करते ज्ञान हैं। होता है उनका आचरण से, पूर्ण सब व्यवहार है ।
हर सांस में उनके कि बजता, मधुर समकित तार है ॥ साधु परमेष्टी ज्ञान सहित शुद्ध सम्यग्दर्शन की साधना करते हैं । उनका आचरण भी पूर्ण सम्यक्त्व से युक्त रहता है और जितने भी गुण उनकी आत्म-निधि में से प्रकट होते हैं, वे समस्त मम्यक्त्व की वेष-भूषा से सुसज्जित रहते हैं ।
गुरुउपासना ऊर्ध अर्ध मध्यं च, दिस्टितं मंमिक्त दरसनं । न्यान मयं च सर्वन्यं, आचरनं मंजुतं धुर्व ॥३४१॥ सम्यक्त्व-मणि से जो निरखते, सतत तीनों लोक हैं । करती हैं समकित-रश्मियें, जिन उरों में आलोक हैं । सम्पूर्ण, ध्रुव, शुचि, ज्ञानमय, आचरण के जो प्राण हैं । सम्यक्त्व-पारावार वे ही, साधु पूज्य महान हैं।
जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक तीनों लोकों को सम्यकदृष्टि के द्वारा देखते हैं। ज्ञान से जो परिपूर्ण हैं तथा जिनके आचरण अविनाशी, ध्रुव सम्यग्दर्शन से श्रोतप्रोत है, वही सत्पुरुष, सच्चे माधु कहलाने के योग्य होते हैं ।