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सम्यक् आचार
दिव्यानुयोग उत्पादंते, दिव्य दिस्टी च संजुतं । अनंतानंत दिस्ते, स्वात्मानं वक्त रूप यं ॥३५६॥ द्रव्यानुयौगिक ग्रंथ का स्वाध्याय, सौख्यागार है । यदि शुद्धनय हो तो, इसी सुख का न पारावार है॥ जिस भांति दिखता आत्म का, शुद्धात्मा सत् रूप है । दिखता है निश्चय दृष्टि से, त्यों विश्व ही चिद्रप है ॥
द्रव्यानुयौगिक ग्रंथों का स्वाध्याय मनन अत्यंत सुखद होता है। यदि इन ग्रन्थों के पढ़ने में निश्चयनय दृष्टि का उपयोग किया जाय, तब तो यह आनन्द और भी बढ़ जाता है। जिस प्रकार मनुष्य को अपनी आत्मा शुद्धात्मा के रूप में दृष्टिगोचर होती है, द्रव्यानुयौगिक ग्रन्थों को पढ़ने से मनुष्य को द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से उसी प्रकार संसारकी आत्मायें शुद्धात्मा या परमात्मा के रूप में दिखाई देती हैं।
दिव्यं द्रव्य दिस्टी च, सर्वन्यं सास्वतं पदं । नंतानंत चतुष्टं च, केवलं पदमं धुवं ॥३५७॥ यह द्रव्यदृष्टि अपूर्व है, अनुपम है. शोभाधाम है । दिखता है जिसकी दृष्टि में, सर्वज्ञ आतमराम है ।। वह जानती, रे ! आतमा अगणित गुणों से युक्त है ।
वह केवली, वह पद्म, ध्रुव, वह चतुष्टय संयुक्त है । यह निश्चयनय या द्रव्यदृष्टि एक अपूर्व शोभनीक वस्तु है, जो अपनी आत्मा के सर्वज्ञ, शाश्वत और ध्रुव पदार्थ के रूप में दर्शन करती है । व्यवहारनय या परमार्थिकनय आत्मा को, जहाँ कर्मों के गाढ़ अंधकार से लिप्त, संसारी और नाशवान मानती है, वहाँ ही यह नय उसी आत्मा को चार चतुष्टयों से युक्त, केवली ध्रुव और कमल के समान हमेशा प्रफुल्लित रहने वाली मानती है।