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सम्यक आचार
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चरनानुयोग चारित्रं, चिद्रपं रूप दिस्टते । ऊर्ध अर्धं च मध्यं च, मंपूरलं न्यान मयं धुवं ॥३५४॥ चरणानुयौगिक ग्रन्थ में, रहते विमल चारित्र हैं । दिखते हैं सत् चिद्रप के, सर्वत्र उनमें चित्र हैं। होता है जब उनके पठन में, आत्मा तल्लीन है।
दिखता है तब त्रैलोक्य ही, शुद्धात्मा में लीन है ।। चरणानुयौगिक शास्त्रों में मुनियों या सद्गृहस्थों के चारित्रों का समावेश रहता है। उनमें उन विमल आत्माओं के चरित्र चित्रण किये गये होते हैं, जोकि अपने पद से बढ़कर परमात्मा बन गई थीं या जिन्होंने यह दिखा दिया था कि आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता विद्यमान है । जिस समय इन ग्रन्थों के स्वाध्याय में मन तल्लीन होता है, उस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक, तीनों लोक में शुद्धात्मा का ही गुंजार हो रहा है।
षट् कमलं त्रि लोकं च, सार्द्ध धर्म संजुतं । चिद्रूपं रूप दिस्ते, चरनं पंच दीप्त यं ॥३५५॥ पटकमल कर ओंकारमय, धरता जो धर्मध्यान है । चैतन्य का होता उसे, साक्षात्कार महान है । जो पंचदीप्ति-समूह करता, शुभ्र, पूर्ण प्रकाश है । उनके हृदय-आकाश में, चारित्र का ही वास है।
जो अपने छहों कमल को ओंकारमय करके, उसका ध्यान करता है, उसे आत्मा का साक्षात्कार होते देर नहीं लगती। संसार में पंच परमेष्ठी के नाम से जो ज्योतियें प्रकाश कर रही है, उनमें भी यही म्वरूपाचरण निश्चय चारित्र रमण कर रहा है, अर्थात वे भी इसी चारित्र के बल पर इन संसार श्रेष्ठ पदों पर मुशोभित हुए हैं।