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सम्यक आचार
समिक्त आदि गुनं साद, मिथ्या माया विमुक्तयं । सिद्ध गुनस्य संजुत्तं, साधं भव्य लोकयं ॥३३६॥ सम्यक्त्व आदिक गुणों से जो, पूर्ण हैं, भरपूर हैं। मिथ्यात्व, मल रहते हैं जिनसे, दर और सुदूर हैं। ऐसे जो सद, चित, सिद्ध, अगणित गुणों के आगार हैं।
संसार में आराधना के, बस वही आधार हैं। सम्यक्त्व आदि अष्ट महान गुणों के जो आधार है; मिथ्यात्व जिनको छूने का भी सामर्थ्य नहीं कर सकता और जो आवागमन के लौह-बंधनों को तोड़कर कृतकृत्य हो चुके हैं, ऐसे अनंतानंत गुणों के स्वामी सिद्ध भगवान ही आराधना करने के पूर्ण योग्य हैं।
आचार्य आचरन धर्म, ति अर्थ सुद्ध दरसन । उपाय देव उवदेसन कृत्वा, दम लष्यण धर्म धुर्व ॥३३७॥ जो मोध के आधार जग में, तीन रत्न महान हैं । आचार्यगण करते कराते, नित्य उनका गान हैं । जगतीतली में श्रेष्ठ जो, दशलाक्षणिक सद्धर्म हैं ।
उनको पढ़ाकर, उपाध्याय, उनका बताते मर्म हैं । भाचार्य परमेष्ठी रस्वत्रय धर्म का स्वयं प्राचरण करते हैं व दूसरों को भी इसी धर्म के अनुसार चलने का उपदेश देते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी, जो अविनाशी ध्रुव दशलाक्षणिक धर्म हैं, उनका मम बताते हैं और अपने व्याख्यानों से उन्हें, अपने संघ, समुदाय व जनता को हृदयंगम कराते हैं।