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सम्यक् आचार
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तस्यास्ति षोडसं भावं, ति अर्थ तीर्थकरं कृतं । षोडस भावनं भावं, अरहंतं गुण सास्वतं ॥३३४॥ जो तीर्थकर-बंध से, कृतकृत्य सब विधि हो चुका । सुख-राशि षोड़श भावना का, बीज वह नर वो चुका ।। सचमुच ही षोड़श भावना की, साधना सुखकंद है । होता है इससे व्यक्त, आत्म-निधान का आनंद है।
षोड़श कारण भावना या सोलह भावनाओं के चिन्तवन का सर्वोत्तम फल, तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेना ही है, अत: सोलह भावनाओं का चिन्नवन उसी का सफल है, जिसको तीर्थकर नाम कर्म का बंध हो गया। वास्तव में सोलह कारण भावनायें अपूर्व निधि को प्रदान करने वाली होती हैं, इससे आत्मा में सोते हुए अरहन्न पद में विद्यमान रहने वाली शाश्वत गुणों की राशि जाग जाती है।
सिद्धं च सुद्ध मंमिक्तं, न्यान दरसन दरसितं । वीजं सुह समहेतुं, अवगाहन अगुरुलघुस्तथा ॥३३५॥
'जो सिद्ध हैं, सम्यक्त्व के होते वे पारावार हैं । होते “अनंतानंत, दर्शन, ज्ञान के वे द्वार हैं। बल, सूक्ष्म, अव्याबाधिता, व अगुरुलघु, अवगाहना । इन अष्टगुण से दीप्त रहते, नित्य सिद्ध महामना ॥
जो सिद्ध हो चुके, वे पुरुष अनंतानंत गुणों के समुद्र होते हैं। अष्ट कमों के नाश हो जाने से उनमें प्रात्मा की अष्ट महान निधियें प्रकट हो जाती हैं और इस तरह वे सम्यक्त्व, अनंत ज्ञान, अनंत दशन, अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व, अध्याबाधव, अवगाहनात्व और गुरुलघुत्व इन अष्ट अलौकिक गुणों के म्वामी होते हैं।