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सभ्यक आचार
देव पंच गुनं सुद्धं, पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो । देवं जिन पण्णत्तं, साधु सुद्ध दिस्टि समयेन ॥३३२॥ जो पंच परमेष्ठी हैं, वे होते गुणों के धाम हैं । करते हैं आलोकित उन्हें, नित पंच पद अभिराम हैं। पांचों ही जिन सम्यक्त्व के, होते अगाध निधान हैं । कहते इसीसे विज्ञ जन, उनको जिनेन्द्र महान हैं।
पांचों परमेष्ठी गुणों के अपूर्व निधान होते हैं और पांच पदवियों से संयुक्त रहते हैं । सम्यक्त्व की, रस-धार इनमें कल कल करके बहती रहती है। विज्ञजनों ने इन पांचों को ही, इसीलिये जितेन्द्रिय भगवान की संज्ञा प्रदान की है।
अरहंत भावनं जेन, षोडस भावेन भावितं । ति अर्थ तीर्थकर जेन, प्रति पूरनं पंच दीप्त यं ॥३३३॥
अरहन्त पद की भावना से, जो सतत रहता सना । या जिस हृदय में नित्य जगतीं, भव्य षोड़श भावना ।। वह उपजता, जयरत्न, पंचज्ञान लेकर साथ है । वह पुरुष करता, तीर्थकर बन, त्रिलोक सनाथ है।
जो पुरुष अरहन्त पद का व षोड़श कारण भावनाओं का चिन्तवन करना है, वह नियम से नीन रत्न और पाँच ज्ञानों का धारी, तीनों जगत को तारने वाला तीर्थकर होता है।